जैन धर्म की आराधना का एक अंग है - सामायिक। सामायिक जैन दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है। जिसके हृदय में जैन धर्म के प्रति थोड़ी भी आस्था है या अपनी आध्यात्मिक गति करना चाहते है उनके जीवन में सामायिक की आराधना अवश्य होगी। सामायिक करना एक परम्परा का निर्वहन भी हो सकता है यदि बिना समझे सामयिक करे तो। सामायिक भगवान महावीर द्वारा प्रदत्त बहुत गहरी एवं बहुत आध्यात्मिक साधना है।
सामायिक का अर्थ है - समय में ठहरना। समय का अर्थ है - आत्मा। आत्मा में ठहरना सामायिक है। यही अर्थ ध्यान का है। ध्यान यानि आत्मा में ठहरना। आत्मा को समय क्यों कहा? समय यानि वर्तमान क्षण। क्षण भी समय से बहुत बड़ी है। आँख के एक पलकारे में असंख्यात समय बीत जाते है। समय यानी वर्तमान क्षण। जब साधक का चित्त वर्तमान में रहता है तो यही सामायिक है और यही ध्यान है। वर्तमान में रहना यानि भूत भविष्य से मुक्त हो जाना। वर्तमान में रहने का अर्थ है विचारो से मुक्त हो जाना, मन से मुक्त हो जाना। यही ध्यान का रहस्य है।
इस वर्तमान क्षण में सामान्य साधक ज्यादा देर रह नहीं सकता। निर्विकल्प दशा में साधक कुछ क्षण भी रह जाए तो प्रचुर कर्म क्षय हो जाते है। कहा है - एक तरफ अनंत काल के शुभ कर्म का फल और दूसरी तरफ एक क्षण की निर्विकल्प दशा का फल - इन दोनों की तुलना करे तो एक क्षण निर्विकल्प दशा का फल अनंत काल के शुभ कर्म के फल से ज्यादा है। अब सोचो ध्यान करना कितना आवश्यक है। कहते है न कि ज्ञानी एक श्वासोश्वास में अनंत कर्मो को निर्जरा करता है। यानी क्षण भर की ध्यान में प्राप्त निर्विकल्प दशा में अनंत कर्मो की निर्जरा होती है। इसी निर्विकल्प दशा में सम्यक दर्शन का स्वाद लग जाता है और साधक का काम हो जाता है।
पुणिया श्रावक की सामायिक ऐसी ही तो रही होगी। भगवान ने श्रेणिक को ऐसी सामायिक खरीदने को कहा था। ऐसी सामायिक में नरक गति टालने का सामर्थ्य है। जरा गौर करे और देखे कि हमारी सामयिक कैसी है? द्रव्य सामायिक से संस्कार जरूर बनते है। लेकिन द्रव्य सामायिक भाव दशा में जाने के लिए होनी चाहिए। कहीं श्रावक बहुत सारे वर्षो तक ऐसी परंपरा से सीखी हुई सामायिक करते आ रहे है। सोचो इससे लाभ कितना हुआ। आत्मानुभूति कितनी हुई? समता कितनी आई? प्रतिकूल क्षणों में हम कितने सम रह पाते है? उत्तर शायद संतोषप्रद नहीं मिलेगा।
सामायिक भाव दशा में ले जाने वाला हो तो काम बने। भाव दशा वो है कि जिसमे मन न भूतकाल में जाए, न भविष्य काल में जाए - मात्र वर्तमान में रहे - यही समता का रहस्य है। ऐसी समता वर्तमान क्षण में ही संभव है। भूत भविष्य राग द्वेष के जन्मदाता है, वर्तमान क्षण समत्व भाव का जन्म दाता है। यही सामयिक ध्यान है। सामायिक में क्रिया करना शुभ योग हो सकता है, सामायिक नहीं। सामयिक तो वर्तमान आत्म दशा में रहने से ही होगी और वो ध्यान से ही संभव है।
कैसे करे ऐसी सामायिक? ५० मिनिट के लिए समय निकाल कर ध्यान में बैठे। ध्यान में बैठ कर शरीर को स्थिर कर ले। जहा तक हो हिले डूले नहीं। आँखे बंद कर ले। चित्त को श्वास पर या फिर विचारो पर केंद्रित करे और जो श्वास चल रहा है उसे साक्षी भाव से देखे। या विचारो को साक्षीभाव से देखे। विचारो से गभराये नहीं - विचार आएंगे, उसे देखते रहे। कुछ दिनों में ऐसी स्थिति बनेगी कि आप विचारो को देख पाएंगे। विचारो को देखने से विचार आना कम हो जाएगा, जागृति - होश बढ़ता जायेगा। धीरे धीरे आप आत्मानुभूति तक पहोंच सकते हो। ऐसा रोज नियमित रूप से ५० मिनिट का अभ्यास करे तो सामयिक तुम्हे सम्यक दर्शन की झलक दिखा सकता है।
समण श्रुतप्रज्ञजी
चेन्नई, भारत
२७ एप्रिल २०१९