त्याग - भोग और आत्म ज्ञान
जीवन में आसक्ति को मिटाने के लिए कोई प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। क्योकि यह प्रयास निषेध से लड़ने का प्रयास है। निषेध से लड़ने से वो और अधिक प्राणवान बन जाती है। निषेध को मिटने का एक ही मार्ग है कि विधेयात्मक को प्राणवान बना दे। अंधकार से लड़ने का या उसे मिटाने का प्रयास मत करो, प्रकाश की व्यवस्था करो। आसक्ति अंधकार के समान है। आत्मज्ञान का दिया जले तो आसक्ति का अंधकार मिट सकता है।
अधिकतम लोग आसक्ति से लड़ते है और उसके कारण वे विरक्त हो जाते है। विरक्ति आसक्ति का ही उल्टा पहलू है। एक आसक्त व्यक्ति जिससे आसक्त होता है, एक विरक्त व्यक्ति उसी से विरक्त होता है। एक के मन में राग भाव है, दूसरी के मन में द्वेष भाव है। आसक्ति भी नहीं, विरक्ति भी नहीं, अनासक्ति चाहिए। यह अनासक्ति आत्मज्ञान का परिणाम है।
घर का त्यागी विरक्त है, इसलिए वह आश्रम बना कर नई आसक्ति खड़ी कर लेगा। धन को छोड़ने वाला त्याग में आसक्त हो जाएगा। गृहस्थ जीवन का त्याग करने वाला परिवार का त्याग कर देता है, लेकिन नये शिष्यों का मोह उन्हें नए बंधन में फंसा देता है।
अनासक्ति के लिए किसे पाना या किसे छोड़ना अनिवार्य नहि है। व्यक्ति जहाँ है वही रह कर व्यक्ति और वस्तु का उपयोग करते हुए उनके प्रति अनासक्त रह सकता है। भीतर से तृप्त साधक सब कुछ करते हुए भीतर से द्रष्टा बनकर, कमल की तरह निर्लिप्त रह सकता है।
- समण श्रुतप्रज्ञजी
27 March 2019