आज ता. २७ को मुनिश्री जशराजजी महाराज साहेब का प्रवचन - सार
वर्तमान में अपनी अवस्था कैसी चल रही है? उदय योग संयोग की अवस्था, अपना भाव, अपना परिणाम, मन वचन काया का योग यह उदय है एवं सांयोगिक है। उसकी क्या स्थिति है? शरीर के साथ व्यक्ति कैसे जीता है? वाणी की चंचलता कितनी है? अप्रयोजनभूत कितना बोलते है? प्रयोजनभूत कम और अनावश्यक ज्यादा बोलते है। भूत -भविष्य की बाते और विचार तो प्रयोजनशून्य है न ? फिर क्यों चलता है? क्योकि व्यक्ति बेहोश है। कितना समय एवं शक्ति का खर्च हम इसमें करते है ? यह समय की बर्बादी कोई माफ़ नहीं करेगा।
हमें हमेशा निमित्त के बीच ही रहना है और बच के रहना है। आपको लगेगा शरीर को सब कुछ ठीक होना चाहिए। बहुत लोगो का शरीर ठीक है साडी अनुकूलता है। शरीर शाता में है। बहार से सब अनुकूलता है। फिर भी आपका मन क्यों शांत नहीं है? तो फिर मन कब ठीक रहेगा? अनुकूलता में भी मन ठीक नहीं है, प्रतिकूलता में भी मन ठीक नहीं तो फिर क्या करे? १४ राजलोक में मन कही भी जाए, सब की यही दशा है। देवलोक और नरक लोक में भी यही स्थिति है।
हमने कभी इसके लिए प्रयत्न नहीं किया। मनुष्य जन्म एक मौका है। इस चक्र से बहार निकल सकते है। यह चक्र चल रहा है, इसमें मनुष्य पीसा जा रहा है। एक जन्म से नहीं अनंत जन्म से पीसा जा रहा है। जब व्यक्ति के शरीर का निर्माण हुआ वह कौन करता है? एक गति में से जिव दूसरी गति में जाता है - कर्म साथ में ही होते है। हमने अमुक माँ बाप ही क्यों चूना? हम तो बेहोश थे। कितना बड़ा विश्व है। ८४ लाख जिवायोनि - कर्म के आयोजन से सब कुछ होता है।
तीन ग्रन्थ एवं एक आगम है कर्म के बारे मे जिसे अभ्यास करना हो तो - कर्म ग्रन्थ( ६ भाग ), पंच संग्रह, कम्म पयेडी एवं नंदी सूत्र। जिसकी रूचि है - पढ़े - रस आएगा तो डूब जायेगा इसमें। लेकिन बहुत गहरा है। समज़ने के लिए कोई भोमिया चाहिए। जीवन की गुणवत्ता बदल जायेगी।
कर्म कैसा है? आप कुछ भी करो कर्म तो होगा ही। बेहोशी में कर्म करते है वो पाप है। जाग्रति से कर्म करो वो पुण्य है। हम तो साधन को धर्म मानते है। साधन धर्म नहीं है। साधन सब के एक समान लेकिन भाव सबके अलग अलग है। शरीर सुन्दर मिला है - शुभ नाम कर्म के उदय से, फिर भी मन शांत क्यों नहीं है? क्योकि हम बेहोश है। शरीर का जन्म माँ बाप से होता है, सम्यक दर्शन का जन्म ध्यान से होता है।
सम्यक दर्शन दुर्लभ है। सम्यक श्रवण हो तो इसी से घटना घट जाती है। लेकिन टेंशन - डिप्रेशन में हम सुन ही नहीं पाते। मनुष्य जन्म में श्रवण होता है। महावीर के समवसरण में बारह प्रकार की परिषद् सुनती है, फिर भी घटना क्यों नहीं घटती है? केवलज्ञानी की देशना है। फिर भी जागृति नहीं आती है। रूटीन से सुनते है। रूटीन धर्म नहीं है, होश धर्म है। लाखो में से एकाध व्यक्ति को ही सम्यक दर्शन होता है - ऐसा क्यों? पंचम आरा बाधा नहीं है। समय के साथ आत्मा का सम्बन्ध नहीं है, आत्मा का सम्बन्ध होश के साथ है। सम्यक दर्शन होने पर ही आत्मा की यात्रा चालू होती है। बाकि सब पुण्य पाप का खेल चलता रहेगा। हम सब संयोग के आधिन है। होश आ गया तो कर्म के उदय की हर स्थिति का सहज स्वीकार हो जाता है। स्वीकार हुआ तो राग द्वेष बंद - यही धर्म है। मजबूरी से नहीं, समझदारी से स्वीकार हो।
वर्तमान अशाता का उदय चल रहा है। शांत स्वीकार हुआ तो मन हिलेगा नहीं। ऐसा स्वीकार हो गया तो क्या होता है? कर्म जो बेलेंस में पड़ा है उसका उद्वर्तना,अपवर्तना, - स्वीकार से हो जाता है। शरीर के लिए सावधान है, समाज के लिए सावधान है। अपने लिए सावधान नहीं है। अपनी हमेशा बादबाकी करते है। हम अपने लिए जीते ही नहीं। स्वयं के लिए जीना वर्तमान में जीना है।
हम मासखमण कर लेते है लेकिन स्वीकार नहीं करते है। स्वीकार भाव आया तो जीव स्व में रहता है, अन्यथा पर में रहता है। हमारे पास कर्मो का कितना बेलेंस है? मनुष्य जन्म मिला किसके लिए?
यह जन्म साधन है। मेरे लिए क्या उपयोग किया ? आठ कर्म है। एक एक कर्म की स्थिति है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय एवं अंतराय कर्म की सत्ता है जघन्य अंतर्मूर्हत एवं उत्कृष्ट ३० क्रोड़ाक्रोड़ सागरोपम है। मोहनीय में - दर्शन मोहनीय की उत्कृष्ट 70 क्रोड़ाक्रोड़ और चारित्र मोहनीय की ४० क्रोड़ाक्रोड़ सागरोपम की स्थिति है। ४००० वर्ष अबाधाकाल की स्थिति है। यह हुकम का कार्ड है। क्यों रोता है तू ? कर्म महान नहीं है, आत्मा महान है। लेकिन पुरुषार्थ करना ही नहीं है। अशाता वेदनीय की स्थिति १५,००० क्रोड़ाक्रोड़ की है और अबाधा काल १५०० वर्ष का है। अशाता का समग्रता से - योग और उपयोग से स्वीकार हुआ तो अशाता का कर्म शाता में कन्वर्ट हो जाता है। अपने तो डॉक्टर ही भगवान है। पैसा भी देना, समय भी बिगाड़ना, दुखी भी होना और आर्त्त और रौद्र ध्यान भी करना। अपने को दर्द को देखने की क्षमता क्यों नहीं है? अगर देखने की क्षमता हो तो उस स्थिति में जीव को भेद ज्ञान हो जाता है। स्वीकार न हो तो अनंत काल तक भोगना पड़ेगा।
सफाई करनी है तो कितना ध्यान रखते है। भीतर कर्मो का पोता लगाया। अनुभाग - रस से कर्मो के बंध की मात्रा काम ज्यादा होती है। आटे में जितना तेल या घी डालो उतना चिकना होता है। सिर्फ रुक्ष से बंध नहीं होता है। रुक्ष रुक्ष का बंध नहीं। स्निग्ध स्निग्ध का बंध नहीं। दो रुक्ष के परमाणु एक स्निगध के परमाणु तो बंध होता है। आटे में कितना पानी डालना यह होश रखना पड़ता है। यह होश है लेकिन परलक्षी है। इतना होश आत्मा में क्यों नहीं? जितना चिकनापन ज्यादा उतना बंध सॉलिड होता है। जागृत बने। स्वरुप लक्ष्य से काम करे - साधना करे तो अवश्य जागृति आएगी। यह जागृति कर्म बंध से बचाएगी।