साधना का प्रथम दिन: अरिहंत सार्वजनिक साधना केंद्र - महाबलिपूरम - चेन्नई से ६० KM दूर है। यहाँ ध्यान योगी मुनि श्री जशराजजी महाराज साधनारत है। गहन साधना में वे लगे हुए है। तीन एकड में रमणीय जगह है। ध्यान करने की सुन्दर व्यवस्था है। भोजन आदि की भी व्यवस्था अच्छी है। सब कुछ निःशुल्क है। बस, साधना की रूचि चाहिए। यहाँ आज २३ एप्रिल को एक सप्ताह के लिए आया हूँ। आज दूसरा दिन है। मुनिश्री का प्रवचन हुआ - सक्षिप्त सार यहाँ है -
साक्षी की साधना:
साधना मार्ग कठिन है, जब तक रूचि प्रबल न हो । मन का भागना हर एक व्यक्ति का अनुभव है। ध्यान साधना मन को स्थिर करने की साधना नहीं है। मन की जहा रूचि हो वहा मन एकरूप हो जाता है। पांच इन्द्रियों के विषयो में रूचि है हे तो वहाँ घंटो तक एकाग्र रहता है। आप देखे कि आर्त्त और रौद्र ध्यान में मन की अवस्था क्या है? वह भी ध्यान है न! लेकिन उनकी कोई शिविर नहीं, कोई ट्रेनिंग नहीं है। मन वाले सरे जीवो का आर्त्त एवं रौद्र ध्यान चलता है। यह जन्म जन्म के संस्कार है एवं जन्मोजन्म की बेहोशी है। सब आदतें बेहोशी में चलती है। खाने पीने की आदत तो स्थूल है। क्रोध - मान, माया, लोभ - जन्मोजन्म की आदत है। लोग कहते है कि क्रोध तो हो जाता है। कैसे होता है? क्योकि बेहोशी है। दूसरी मान्यता है कि निमित्त से क्रोध होता है। निमित्त से क्रोध नहीं होता है, जाग्रति नहीं है इसलिए निमित्त हमारे पर हावी हो जाता है। जागृति है तो साक्षीभाव आ जाता है। कषाय से आपका रक्षण कौन करेगा? बॉडीगार्ड नहीं करेगा, स्वजन, परिजन भी नहीं करेगा। अपने भाव प्राण - ज्ञान, दर्शन, आनंद और वीर्य का रक्षण करेगा - साक्षीभाव।
घर के सभी मेम्बर भी मरण धर्मा है। शरीर को कोई नहीं बचा सकता। मेरा शरीर भी और ज्ञानी का भी शरीर मरण धर्मा है। पांचो पांच शरीर मरण धर्मा है। साक्षीभाव का अनुभव हो जाय तो उसे किसी का भय लगता नहीं है। शरीर को साक्षीभाव से देखो तो शरीर मरण धर्मा है वो देख पाओगे। हर शरीर प्रतिक्षण मर रहा है। हर समय असंख्याता पुदगल अपने शरीर की आकृति के अनुरूप बहार निकलता है। हमें मालूम भी नहीं पड़ता है। सब सारे पुदगल निकल जाते है तो कार्टून को फेंक देता है। माल नहीं है, मॉल निकाल लिया तो कार्टून को निकाल दो। कार्टून फेंक दे उसके पहले माल को निकालना सीख लो। ध्यान अपने शरीर के भीतर जो माल है ज्ञान - दर्शन- आनंद एवं वीर्य का उसे पा लेने माँ मार्ग है। फिर खोखा त्यागना पड़ेगा तो उसका डर नहीं लगेगा। आध्यात्मिक क्षेत्र में बेहोशी बहोत है। अपने आपको देखने का अभ्यास नहीं है, तब तक संसार सत्य लगता है। साक्षी भाव आया संसार स्वप्न लगने लगेगा। एक बंध आँखों का स्वप्न है, दूसरा खुली आँखों का स्वप्न है। साक्षी भाव आते ही सब क्रिया सम्यक होने लगेगी, पूरी दिनचर्या साधना हो जायेगी।
ध्यान में रूचि चाहिए, मात्र ध्यान में बैठने से कुछ नहीं होता है। मन बैठने ही नहीं देगा। मन ध्यान विरोधी है। ध्यान में मन की मत सुनना। मन को हटाते जाओ - साक्षी को लाते जाओ - तब काम होगा। कषाय मंद होगा, पुण्य अपने आप होने लगेगा। पुण्य दो प्रकार का है - आरंभी पुण्य एवं अनारंभी पुण्य। जिसमे खाना - पीना कराओ - हिंसा होती है। साक्षीभाव में किसी की भी हिंसा नहीं है, भीतर में भाव प्राण की सुरक्षा होने लगेगी। कोई भी पुण्य व्यवस्था मात्रा है, उसमे धर्म नहीं है। ध्यान में बैठने से इतनी आत्म शुद्धि होती है कि अपने आप अनारम्भी पुण्य हो जाता है। जब तक आर्त्त रौद्र ध्यान रहेगा, किसी को आराम नहीं मिल सकता है, शाता नहीं मिल सकती है। अनारम्भी पुण्य जीव को परमात्मा तक पहोंचा देता है। श्वास के प्रति पहले साक्षी बनो - कुछ महीनो तक इसका अभ्यास करो। फिर शरीर की संवेदना को देखो और उसके बाद विचारो को साक्षीभाव से देखो।
- समण श्रुतप्रज्ञजी