गंगासती सौराष्ट्र की एक अद्भूत ज्ञानी संत हुई। आध्यात्मिक विकास की कामना करने वाले मानव के लिए उनके पद टॉनिक के समान है। उनके पद गुजरात के हर घर में गूँजते है। इन पदों को ध्यान से सुनकर उन पर आत्म चिंतन किया जाए तो अद्भूत रत्न मिल सकते है एवं जीवन की दिशा अवश्य बदलेगी, क्योंकि उनकी वाणी में आत्म ज्ञान की गंध है।
उनका एक पद है - मेरु तो डगे पण जेना मन न डगे रे - अद्भूत भजन है। वे कहते है - सच्चा हरिभक्त कौन है ? विपत्ति पड़ने पर भी जो विचलित न हो वही सच्चा हरी का भक्त है। अपन लोग सामान्य सी मुश्केली में भी हिल जाते है। ऐसे समय में हम लोग संकल्प को तोड़ देते है एवं अध्यात्म मार्ग से चलित हो जाते है। चाहे कितनी भी मुश्किलें आये फिर भी स्वीकृत मार्ग से हिले नहीं वही साधक होने का प्रमाण है।
आगे कहते है - भाई रे, नित्य रहेवुं सत्संग मा ने जेने आठे पहोर आनंद रे, - ऐसा व्यक्ति नित्य सत्संग में मस्त रहेता है और कारण वो दिन रात आनंद में झूलता रहता है। मानवी को कुसंग की जन्मो जन्म की आदत है, सत्संग आदत डालनी पड़ती है। सत्संग ही आनंद का आधार है और कुसंग ही दुखी होने का धंधा है। आदमी दुःख में भगवान का भजन करता है , दुःख के समय भजन में स्थिरता रहनी मुश्किल है। सुख में प्रभु को भजो - आत्मा का ध्यान धरो तो दुःख के समय भी आनंद छूटेगा नहीं।